जो हौद से गयी सो बूँद से नहीं आती !

बचपन में मेरी चाची ने एक कहानी सुनायी थी. अकबर और बीरबल की कहानी। एक बार बादशाह अकबर एक कीमती अरबी इत्र की खुशबू ले रहे थे. अचानक उस इत्र की कुछ बूंदें कालीन पर छलक कर गिर गयी. बादशाह ने तुरंत झुक कर उस गिरे इत्र को उँगलियों से चुन कर सूंघने की नाकाम कोशिश की. वहां से गुजरते हुए बीरबल की इस पर नजर पड़ी तो बादशाह शर्मिंदा हुए. बादशाह बीरबल की बुद्धिमानी की बड़ी कदर करते थे और चाहते थे की बीरबल की नज़रों में उनकी इज्जत कम न हो. उन्हें लगा बीरबल सोचेगा इतना बड़ा बादशाह चंद इत्र की बूंदों की खातिर जमीन पर झुक गया. कुछ दिन बाद अकबर ने आगरा शहर में मुनादी करा दी, की शहर में जो सबसे बड़ा हौद है, उसमें कीमती इत्र भरवा दिया गया है, और आवाम को खुली छूट दी की वो जितना चाहे इत्र हौद से ले जाएं. शाम को अकबर और बीरबल दोनों महल की छत पे खड़े नजारा देख रहे थे. लोग बाल्टियां भर के इत्र ले जा रहे थे.

अकबर ने बीरबल से कहा, क्यों बीरबल कैसी रही? बीरबल ने मुस्कराते हुए कहा, बादशाह सलामत, “जो बूँद से गयी, सो हौद से नहीं आती.”
कुछ दिन पहले अखबार में एक खबर पढ़ी, की कांग्रेस पार्टी अब सारे हिन्दू त्यौहारों को बाकायदा औपचारिक तरीके से मनायेगी. इस बात पे गौर फरमायें की अब तक कांग्रेस ने इफ्तार पार्टी के अलावा किसी भी त्यौहार के लिए कोई आयोजन करने की जरूरत नहीं समझी थी. २०१४ के चुनावों में भाजपा के पूर्ण बहुमत और अपनी करारी हार के बाद कांग्रेस को इस बात का अहसास हो गया हैं की उनके सालों के मुस्लिम तुषिटकरण के बाद हिन्दू समाज कांग्रेस से कटता जा रहा है. अब कांग्रेस हिन्दू और मुसलमान दोनों समुदायों में अपना जनाधार तेजी से खो रही है. उन्हें समझ में आ रहा है की जिस हिन्दू समुदाय को उन्होंने कभी महत्व देने की कोशिश नहीं की, और उसके साथ सौतेला व्यवहार किया, अब उस समुदाय में अपनी जगह दुबारा बनाये बिना वह सत्ता में नहीं आ पाएंगे. कांग्रेस का ये मुस्लिम तुष्टिकरण का इतिहास बहुत पुराना है. इसकी पहली शुरुआत तब हुई जब महात्मा गांधी ने १९३० में तुर्किस्तान में चल रहे खिलाफत आंदोलन की वकालत की, इस उम्मीद में की भारत के मुसलमान कांग्रेस का साथ देंगे. एक तरफ मुसलमान समुदाय का तुष्टिकरण, और दूसरी तरफ हिन्दू समाज की उपेक्षा और अपमानास्पद बर्ताव, ये कांग्रेस की वर्षों की नीति रही है. आज तक के सभी चुनावों में कांग्रेस ने इस नीति का भरपूर उपयोगं किया.

अब जब इस मूर्खतापूर्ण और साम्प्रदायिक नीति के परिणाम उलटे पड़ने लगे हैं, दोनों समुदायों का कांग्रेस से मोहभंग हो गया है तब उन्हें ये महसूस हो रहा है की हिन्दू समुदाय को अपने करीब लाने की कोशिश जरूरी है. उत्तर प्रदेश चुनाव में शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का दावेदार बनाना इसी हास्यास्पद नीति का नतीजा है. ७०-८० साल तक बेगैरत बर्ताव करने के बाद, कुछ दिखावे की अदाओं से किसी का मन बहला कर चुनावी जीत हासिल करने की उनकी इस कोशिश पे हंसी नहीं रोना आता है. बचपन में सुनी चाची की कहानी आज इसीलिए याद आ गयी. अकबर ने बीरबल की आँखों में जो इज्जत बूँद से गवाई, वो हौद से लौटाने की नाकाम कोशिश की। कांग्रेस तो उलटी गंगा बहा रही है. उन्होनें हिन्दू समुदाय की नजर में अपनी इज्जत बरसों की अपनी गलत नीतियों से खोयी है और उनका मंसूबा हैं की राखी और होली के त्यौहार मना कर, और एक ब्राम्हण समाज के उम्मीदवार के सहारे, वह खोयी हुई इज्जत और प्यार वापस बहाल कर पाएंगे. लेकिन जो हौद से गयी, वह बूँद से कतई वापस नहीं आएगी।