“पद्मावती” और “बाहुबली”

एक बार फिर विक्रम ने वेताल को अपने कंधे पे उठाया और स्मशान की तरफ चल पड़ा. कुछ देर शांत रहने के बाद वेताल ने फिर एक नया प्रश्न पुछा. “राजा, पिछले प्रश्न का जवाब तो तूने बहुत अच्छा बताया. अब एक नया प्रश्न है, और ये ऐसा प्रश्न है जिसमे सही और गलत का फैसला बड़ा मुश्किल है “विक्रमादित्य गौर से सुनने लगा और वेताल ने अपनी बात आगे बढ़ायी,”  तूने संजय भंसाली की फिल्म पद्मावती के बारे में तो सुना ही होगा। चित्तौर की रानी पद्मिनी और उसके जौहर पर बनी इस फिल्म बड़े विवादों में ग्रस्त है. कुछ लोगों का मानना है की भंसाली ने इतिहास के साथ खिलवाड़ किया है और राजपुत गौरव को चोट पहुंचाई है. उनकी मांग है की फिल्म को दिखाने से पहले ये साबित करना हो की कोई ऐसी बात न हो जिस से किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचे. अगर ऐसे दृश्य हैं जो इतिहास से मेल नहीं खाते या जो राजपूत गौरव पर वार करते हैं, तो फिल्म को बिना काट-छांट के न दिखाया जाए। दुसरे वर्ग का मानना है की फिल्म अभिव्यक्ति का एक माध्यम है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हर किसी को होनी चाहिए इसलिए अगर ये आरोप सही भी हैं, तो बिना किसी काँट-छांट के इस फिल्म को दिखाना चाहिए। इनमे से कौन सही है? याद रख, अगर जानते हुए भी तूने प्रश्न का उत्तर नहीं दिया तो तेरे सर के हजार टुकड़े हो जाएंगे। “राजा विक्रमादित्य ने वेताल का प्रश्न सुना, और कुछ देर चुप सोचता रहा. फिर एक लम्बी सांस ले कर उसने अपनी बात कही, “वेताल ये प्रश्न सुनने में सरल है लेकिन इसके उत्तर के कई पहलू हैं। पहले इस विषय तो देश की न्याय और क़ानून व्यवस्था के हिसाब से देखें. हमारे संविधान ने सेंसर बोर्ड को ये अधिकार दिया है की हर फिल्म को देख कर , हर नजरिये से सोच कर, ये फैसला करे की फिल्म में क्या कांट-छाँट की जाए और फिल्म को कैसे प्रमाणित किया जाए.अब सेंसर बोर्ड ने अपना निर्णय सुना दिया है की अगर फिल्म का नाम  “पद्मावत” कर दिया जाए और कुछ जरूरी दृश्यों में बदलाव किया जाए, तो फिल्म तो UA प्रमाणपत्र दे दिया जाएगा. कानूनी तौर पे अगर निर्माता इन सुझावों को मान लेता है तो सही और गलत का फैसला कानूनी तौर पे सुलझा माना जाएगा। अगर कुछ संगठन इसके प्रदर्शन पे रोक लगाने की मांग करते हैं, तो राज्य सरकार की जिम्मेदारी है की वो फिल्म के प्रदर्शन में रूकावट न आने दे. ये बात भी रोचक और सोचने वाली है की इसके पहले कई बार ऐसा हुआ है की सेंसर बोर्ड से प्रमाणपत्र मिलने के बावजूद कुछ फिल्मों पर कुछ राज्य सरकारों ने प्रतिबन्ध लगाया क्योंकि उनके राज्य की जनता ने या कुछ संगठनों ने उन फिल्मों का विरोध किया था.

फिल्म के निर्माता को हक़ है की वह सेंसर बोर्ड या राज्य सरकार के फैसले के खिलाफ कोर्ट जाए और फैसले के खिलाफ अपील करे। पिछले ७० सालों में ७० से ज्यादा बार ऐसा हुआ है की किसी फिल्म पर सेंसर बोर्ड, या किसी राज्य की सरकार या केंद्र सरकार ने प्रतिबन्ध लगाया हो. कुछ मामलों ले निर्माता, निर्देशक या वितरक ने कोर्ट से अपील की और उनमे से कुछ में हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट ने फैसला फिल्म के प्रदर्शन के हक़ में दिया था.अगर कोई फिल्म निर्माता किसी ऐतिहासिक विषय पर फिल्म बनाता है, और हजारों करोड़ रूपया दांव पे लगाता है, तो उसकी जिम्मेदारी बनती है की इस जटिलता को समझे ये तो खैर इस विषय को समझने का कानूनी नजरिया है. फिल्म पद्मावती, रानी पद्मिनी का इतिहास, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, राजपूत गौरव, हिन्दू अस्मिता, और फिल्मों से जुड़ा मनोरंजन, ये सब विषय क़ानून के दायरे में सीमित नहीं है. किसी एक दृष्टिकोण से देखें तो उस पक्ष की बात सही लगेगी और ये जरूरी नहीं की कानूनी फैसला उस नजरिये से मेल खाये।
संजय भंसाली बॉक्स ऑफिस पे सफल होने वाली फिल्मों का निर्माता निर्देशक है. भंसाली और उसकी बिरादरी के लोगों का उद्देश्य सरल और साफ़ होता होता है, किस तरह फिल्म को आकर्षक और मनोरंजक बनाये ताकि अधिकाधिक संख्या में लोग उसे देखें और फिल्म बॉक्स ऑफिस पे सफलता प्राप्त करे. हम इन्हे कलाकार कह सकते हैं, लेकिन ये एक व्यापार से जुड़े हैं, तो इसमें व्यापार के नियम भी लागू होंगे और होते हैं. बॉलीवुड की हिंदी फिल्मों का एक मुख्य विषय हमेशा से प्रेम और श्रृंगार रस रहा है. अधिकतर फिल्में किसी न किसी फार्मूला को ले के बनती है, और रोमांस, गाने, प्रेम ये हर फॉर्मूले का एक मुख्य अंग रहा है और शायद आगे रहेगा भी. अगर ऐतिहासिक फिल्मै बनी भी हैं, तो उसमे इतिहास और वीरता की कहानियां कम और ऐतिहासिक पार्श्वभूमि ले कर प्रेम कथायें ज्यादा बनी है. हाँ अपवाद के लिए  “सरदार, या, “शहीद” जैसी फिल्में बनी है जिसमे प्रेम और श्रृंगार रस नहीं लेकिन इतिहास पे बल है लेकिन वो अपवाद रही हैं. इसके अलावा, बॉलीवुड में मुस्लिम कलाकार, और संस्कृति का भारी प्रभाव रहा है. फिल्म के हर क्षेत्र में औ र न पेशे में मुस्लिम धर्म के लोग जुड़े रहे हैं. दिलीप कुमार, शाहरुख़ खान खान, आमिर खान सलमान खान जैसे नायक, अमजद खान , कादर खान जैसे खलनायक, नरगिस, मधुबाला, वहीदा रहमान, मीना कुमारी, तब्बू जैसी नायिकाएं, सलीम जावेद और रही मासूम रजा जैसे लेखक, रफ़ी और तलत जैसे गायक, नौशाद और खय्याम जैसे संगीतकार, के आसिफ, महबूब और फ़िरोज़ खान जैसे निर्माता निर्देशक और जाने कितने कितने बेहतरीन कलाकार.

इस प्रभाव का शायद ये असर रहा की फिल्म कथा, गीत और संगीत रोचक तो रहा लेकिन बॉलीवुड में हमेशा प्रेम प्रधान कहानियां बनी. मुग़ल शासन के दौरान जो अत्याचार और बर्बरता हुई उस विषय को किसी ने नहीं छेड़ा और वो एक अनकही कहानी रही. वेताल विक्रम की बात समझने की कोशिश कर रहा था, ” तो क्या आसान मनोरंजन ही एक अकेली कसौटी है जो फिल्म का विषय तय करेगी?” विक्रम ने अपनी बात आगे बढाई, “इस बात को ले के कोई बाध्य भी नहीं कर सकता की किसी विशेष नजरिये को ले के फिल्म बने. अगर भंसाली को हमारे इतिहास में केवल जोधा अकबर, बाजीराव मस्तानी, और पद्मावती जैसे विषय पसंद आते हैं, तो ये उसका नजरिया है. प्रश्न ये उठता है की जो लोग भारत के गौरवशाली इतिहास को ले कर चिंतित है, वो क्यों आगे नहीं आते की वो ऐसी फिल्में बनाने में मदद करे जो उनका नजरिया सामने लाये ?
क्यों किसी मराठी संगठन ने बाजीराव या शिवाजी या नाना फडणवीस या रानी लक्ष्मी बाई पर ऐसी फिल्म नहीं बनायीं जो बॉक्स ऑफिस पे इतनी सफल हो जितनी भंसाली की फिल्में सफल होती है ? राजस्थान तो धनाढ़यों का गढ़ है। क्यों आज तक महा राणा प्रताप, राणा सांगा, राणा कुम्भा पर ऐसे फिल्में नहीं बनी जिनको अपार सफलता मिले? क्यों गुरु गोविन्द सिंह या गुरु तेग बहादुर पे ऐसी फिल्म नहीं बानी जो देश और विदेश में बहुचर्चित हो? इसलिए क्योंकि बॉलीवुड फिल्में एक फार्मूला को ले कर बनती है और फॉर्मूले से हट कर करने के लिए बड़ी हिम्मत और पैसा चाहिए . लेकिन इसमें एक आशा की किरण है जो आगे जाके एक बड़ा फार्मूला बन सकता है. जो लोग ऐतिहासिक फिल्में बनाना चाह्ते हैं लेकिन डरते हैं, वो बाहुबली से प्रेरणा ले सकते हैं. दक्षिण के निर्देशक राजमौली की बहुचर्चित फिल्में “बाहुबली” और “बाहुबली २” इस बात को साबित करती है की बड़े परदे पर ऐसी फिल्में बनायी ज सकती है जो आकर्षक हो और बॉक्स ऑफिस पे सफलता हासिल करे और जिसमे ऐतिहासिक परिवेश को आकर्षक रूप से प्रस्तुत किया जाए. हालांकि बाहुबली कोई सच्ची कहानी नहीं है, लेकिन उसकी कहानी हजारों साल पहले के भारत की पार्श्वभूमि पर लिखी गयी है. उस कहानी में न कोई माफिआ है, न पुलिस है, न NRI की प्रेम कथा है, और न किसी मुग़ल बादशाह का प्रेम प्रसंग है. फिर भी फिल्म चली और खूब चली. दंगल , पान सिंह तोमर, मिल्खा सिंह ये फिल्में सत्य कथाओं पर आधारित हैं, जो सच कहानियां थी, अच्छी फिल्में बनी और बॉक्स ऑफिस पर भरपूर सफलता मिली।

जब बड़ी संख्यां में हमारे गौरवशाली इतिहास की कहानिओ को आकर्षक ढंग से बनाया जाएगा, तो इतिहास को तोड़ मरोड़ कर इसमें एक अनावश्यक प्रेम प्रधान कहानी बनाने वाला तबका है वो अपने आप अपनी राह बदलेगा। विक्रम का लम्बा और सोचा समझा उत्तर सुन कर वेताल सोच में पड़ा, फिर हंसा और बोला, “राजा तूने उत्तर तो अच्छा दिया, लेकिन तू बोला और इसलिए मैं चला !”